कोश-संग्रह >> क्रान्तिकारी कोश भाग 5 क्रान्तिकारी कोश भाग 5श्रीकृष्ण सरल
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का आजाद हिन्द आन्दोलन, सन् 1946 का नौसैनिक विद्रोह, हैदराबाद मुक्ति अभियान तथा गोवा मुक्ति अभियान के क्रान्तिकारी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस श्रमसिद्ध व प्रज्ञापुष्ट ग्रंथ क्रान्तिकारी कोश में भारतीय स्वाधीनता
आन्दोलन के इतिहास को पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास
किया गया है। सामान्यतयः भारतीय स्वतंत्र्य आन्दोलन का काल 1857 से 1942
ई. तक माना जाता है ;किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में इसकी काल सीमा 1757 ई.
(प्लासी युद्ध) से लेकर 1961 ई. (गोवा मुक्ति) तक निर्धारित की गयी है।
लगभग 200 वर्ष की इस क्रान्ति यात्रा में उद्भट प्रतिभा, अदम्य साहस और
त्याग तपस्या की हजारों प्रतिमाएं साकार हुई। इनके अलावा राष्ट्र भक्त
कवि, लेखक, कलाकार, विद्वान और साधक भी इसी के परिणाम पुष्प है। पाँच
खण्डों में विभक्त 1500 से अधिक पृष्ठों का यह ग्रन्थ क्रान्तिकारियों का
प्रामाणिक इतिवृत्त प्रस्तुत करता है। क्रान्तिकारियों का परिचय अकारादि
क्रम से रखा गया है। लेखक को जिन लगभग साढ़े चार सौ क्रान्तिकारियों के
चित्र मिल सके, उनके रेखाचित्र दिये गये है। किसी भी क्रान्तिकारी का
परिचय ढूढ़ने की सुविधा हेतु पाँचवे खण्ड के अन्त में विस्तृत एवं संयुक्त
सूची (सभी खण्डों की) भी दी गयी है।
भविष्य में इस विषय में कोई भी लेखन इस प्रामाणिक ग्रन्थ की सहायता के बिना अधूरा ही रहेगा।
भविष्य में इस विषय में कोई भी लेखन इस प्रामाणिक ग्रन्थ की सहायता के बिना अधूरा ही रहेगा।
भारतीय स्वातन्त्रता सेनानी,
अकबर अली, अनिल रॉय, कुरियन, जगदीश, पथार,
बेदी,
मूसा, सलीम, हरजिंदर, हीरालाल
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कराची का नौसैनिक विद्रोह बंबई के नौसैनिक विद्रोह का ही एक अंग था; लेकिन
वहाँ विद्रोह की घटनाओं की इतनी बहुलता है कि उनका सही विवरण तभी जाना जा
सकता है, जब उसका वर्णन अलग से किया जाए। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर
कराची के नौसैनिक विद्रोह का वर्णन यहाँ अलग से किया जा रहा है।
बंबई में नौसैनिक विद्रोह 18 फरवरी, 1946 को प्रारंभ हो चुका था; लेकिन कराची के नौसैनिकों को उस विद्रोह का समाचार 19 फरवरी को मिला, जब प्रात:कालीन अखबार उनके हाथों में पहुँचा। बंबई के विद्रोह के समाचार पढ़कर वे लोग सन्न रह गए। उनके दैनिक जीवन की मस्ती व खुशियाँ तिरोहित हो गईं और तनाव, उत्तेजना एवं अनिश्चय के वातावरण ने कराची के सभी नौसैनिकों को घेर लिया।
उस समय कराची में शाही भारतीय नौसेना के पाँच जहाज थे। उनके नाम थे-
1. एच.एम.आई.एस. मौंज,
2. एच.एम.आई.एस. हिमालय,
3. एच.एम.आई.एस. बहादुर,
4. एच.एम.आई.एस. दिलावर,
5.एच.एम.आई.एस. चमक।
इनमें से ‘मौंज’ जहाज स्थानीय सुरक्षा के लिए था, ‘हिमालय’ नाम का जहाज तोप संचालक था, ‘बहादुर’ और ‘दिलावर’ नाम के जहाज किशोरावस्था के बालकों के प्रशिक्षण के लिए थे और ‘चमक’ नाम का जहाज राडार व्यवस्था के प्रशिक्षण के लिए था।
‘बहादुर’ नाम के जहाज पर जो प्रशिक्षणार्थी थे, उनमें से किसी की भी उम्र पंद्रह वर्ष से अधिक नहीं थी और ‘दिलावर’ नाम के जहाज के प्रशिक्षणार्थी तो आठ-आठ दस-दस वर्ष के बच्चे थे, जिन्हें उनके माता-पिता ने इसलिए ठेल दिया था कि वे कमाकर उनके लिए कुछ भेज सकें या कम-से-कम उनके लिए बोझ न बनें। माता-पिता के लिए इस स्थिति का निर्माण इसलिए हो गया था कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् ब्रिटिश शासन ने अपनी खोखली आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई प्रकार के ‘कर’ लगा दिए थे और महँगाई बहुत अधिक बढ़ गई थी। निर्धन और निम्न-मध्यवर्गीय लोगों के लिए जीना मुश्किल हो गया था और उन्हीं लोगों ने अपने बच्चों को जहाजी प्रशिक्षण के लिए भेज दिया था।
परिस्थितियों की चपेट के कारण ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह अपनी नौसैनिक शक्ति बढ़ाए और जहाजों की संख्या में काफी वृद्धि करे। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान जैसे छोटे देश ने अंग्रेजों के कई जहाजों को समुद्र में समाधि दे दी थी और उनकी शक्ति के खोखलेपन को उजागर कर दिया था। अपने इस अनुभव से सबक लेकर ब्रिटिश हुकूमत ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अपनी जलशक्ति की वृद्धि के लिए जहाजों की संख्या में काफी वृद्धि कर दी थी और इसी कारण काफी मात्रा में उन्हें नई भरती करनी पड़ी थी। गरीब और अभावग्रस्त वर्ग के लोगों ने अपने छोटे-छोटे बच्चों को बाल नौसेना में भरती करा दिया था।
कराची के जलक्षेत्र की भौगोलिक स्थिति भी जान लेना आवश्यक है।
कराची के जलशक्ति संस्थान एक छोटे से द्वीप पर स्थित थे, जिसे ‘मनोरा’ नाम से जाना जाता था। अरब सागर की एक जल पट्टी ने मनोरा द्वीप को कराची शहर से अलग कर दिया था। यह जल पट्टी लगभग दो किलोमीटर चौड़ी थी। कराची नगर के सुदूर दक्षिणी अंचल में कराची का बंदरगाह था, जिसे ‘केमारी जेट्टी’ के नाम से जाना जाता था।
जब बंबई में नौसैनिक विद्रोह भड़का तो बंबई के नौसेना अधिकारियों के तो हाथ-पैर फूल गए; क्योंकि वहाँ सभी नौसेना केंद्र और सैनिक बैरकें पास-पास थीं और उनमें पारस्परिक संपर्क बहुत शीघ्र स्थापित हो गया। लेकिन कराची के नौसैनिक अधिकारियों में विद्रोह के समाचार सुनकर भी कोई घबराहट नहीं हुई, क्योंकि वे जानते थे कि भौगोलिक पृथकता के कारण नौसेना का संपर्क शहर के लोगों से नही हो पाएगा और अलग-थलग पड़ जाने के कारण वहाँ के नौसैनिक विद्रोह नहीं कर सकेंगे।
19 फरवरी को रोजाना की भांति कक्षाएँ लगीं। नौसैनिक और प्रशिक्षणार्थी बंबई विद्रोह के समाचार पढ़ चुके थे; लेकिन उन्होंने किसी अशांति और उत्तेजना का प्रदर्शन नहीं किया। यह इसलिए आवश्यक था, जिससे उनके अधिकारियों को उनके प्रति कोई संदेह उत्पन्न न हो। जब दोपहर के भोजन के लिए कक्षाएँ छूटीं तो लोग इधर-उधर बिखर गए। प्रशिक्षणार्थियों में जो नेता किस्म के लोग थे, वे प्रशिक्षाणार्थियों से गपशप करते हुए विद्रोह के विषय में उनके विचार जानने लगे। उन लोगों का अपना एक संघ था, जिसका नाम ‘सेलर्स एसोसिएशन’ (नाविक संघ) था। वैसे इस संघ की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वहाँ कई तरह के क्लब भी थे; लेकिन यह संघ विशेष उद्देश्य से बनाया गया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से अंग्रेजों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के अफसरों को गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें भी भारत लाया गया था। दिल्ली के लाल किले में उनपर मुकदमा चलाया जा रहा था। जिन लोगों पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाया जा रहा था, उनमें मेजर जनरल शहनवाज खाँ, कर्नल गुरुबख्शसिंह ढिल्लन और कर्नल प्रेमकुमार सहगल प्रमुख थे। ब्रिटिश सरकार का पूरा प्रयत्न था कि उन लोगों को फाँसी पर लटकाकर अन्य लोगों के दिलों में दहशत उत्पन्न की जाए, जिससे वे कभी बगावत की बात न सोचें। भारत-भर में इस मुकदमें के कारण सनसनी फैल गई थी और लोग अपने राष्ट्रीय वीरों को बचाने के लिए कृतसंकल्प थे। एक बचाव समिति बनाई गयी थी। देश के कोने-कोने से चंदा एकत्र होकर बचाव समिति के पास पहुँच रहा था। नागरिक लोग तो चंदा देने के लिए स्वतंत्र थे, लेकिन शासकीय कर्मचारी खुले रूप से चंदा नहीं दे सकते थे। ब्रिटिश सेनाएँ तो सम्राट् के प्रति वफादारी की प्रतिबद्धता के कारण आई.एन.ए.के लोगों को बचाने के लिए चंदा देने की बात सोच भी नहीं सकती थीं। इतना होने पर भी तीनों प्रकार की सेना के लोग आई.एन.ए. के वीरों को बचाने के लिए भरपूर चंदा दे रहे थे। कराची में जो सेलर्स एसोसिएशन बनाया गया था, वह इसी उद्देश्य से बनाया गया था। उन्होंने जाहिर कर रखा था कि सार्वजनिक उत्सवों और आवश्यकता की घड़ी में साथियों की आर्थिक सहायता के लिए कोष स्थापित किया गया है। अपने उस कोष का उपयोग वे लोग आजाद हिंद फौज के अफसरों पर चल रहे मुकदमें में उनकी सहायता के लिए कर रहे थे।
जब हड़ताल की सनसनी फैली तो सभी लोगों से संपर्क साधने के बजाए इस नाविक संघ के प्रतिनिधियों से संपर्क साध लिया गया। प्रशिक्षणार्थियों के लिए जो भोजन का अवकाश मिला था, उसमें घूम-घूमकर यह निश्चय किया गया कि पूरी छुट्टी हो जाने के उपरांत घूमते-फिरने और मनोरंजन करने के बहाने सभी जहाजों के लोग सागर तट पर पहुँचें, जिससे हड़ताल करने के संबंध में कुछ निर्णय लिया जा सके।
संध्या होते ही सभी केंद्रों के लोग घूमने-फिरने के बहाने समुद्र तट पर पहुँच गए। वे लोग इधर-उधर समूह बनाकर बैठ गए और गपशप करने लगे। बंबई में नौसैनिक विद्रोह भड़क जाने के कारण इन लोगों पर तनाव था और कोई भी आपस में हँसी-मजाक नहीं कर रहा था; ठहाके नहीं उठ रहे थे। सभी समूह धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। इस अवसर का लाभ उठाकर संघ के प्रतिनिधि वहाँ से खिसककर, पहले निश्चित कर लिये गए एक स्थान पर बैठकर, मीटिंग करने लगे। प्रतिनिधियों की इस सभा ने निर्णय लिये-
1. 20 फरवरी के पूरे दिन पारस्परिक विचार- विमर्श और व्यवस्थाएँ करके 21 फरवरी, 1946 से कराची के नौसैनिक विद्रोह प्रारंभ कर दें।
2. सभी लोग 21 फरवरी को प्रात: दस बजे कराची की केमारी जेट्टी में एकत्र हों।
3. ‘बहादुर’ और ‘चमक’ जहाजों के प्रशिक्षणार्थी पृथक-पृथक् न जाकर सम्मिलित रूप से केमारी जेट्टी पहुँचें, जिससे ‘चमक’ जहाज के किशोर प्रशिक्षणार्थियों को अपने वरिष्ठ साथियों का संरक्षण मिल सके।
4. बंबई के विद्रोही नौसैनिक साथियों की हड़ताल का समर्थन करने के लिए कराची के बाजारों में एक जुलूस निकाला जाए।
5. कराची के केमारी जेट्टी के गोदी मजदूरों को भी जुलूस में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया जाए।
6. जुलूस में साम्राज्य विरोधी और हिंदू-मुसलिम एकता के वे सभी नारे लगाए जाएँ, जो बंबई में लगाए गए हैं।
7. प्रशिक्षण के लिए लगनेवाली कक्षाओं और जहाजों के अन्य कार्यों का पूर्णरूप से बहिष्कार किया जाए।
अगला कदम उठाने की दिशा में निर्णय लेने के लिए विभिन्न केंद्रों की एक दस सदस्यीय समिति का निर्माण कर लिया गया। ‘हिमालय’ जहाज के साथियों को यह दायित्व दिया गया कि वे केमारी जेट्टी स्थित ‘हिंदुस्तान’ और ‘ट्रावनकोर’ जहाजों के साथियों को इन निर्णयों की सूचना दे दें। यह भी निर्णय लिया गया कि कोई ऐसा आचरण न किया जाए, जिससे अधिकारियों को कोई संदेह हो। 20 फरवरी की शाम को उसी स्थल पर फिर मिलने का निश्चय किया गया। घूम-फिरकर सभी लोग अपने-अपने आवास गृहों की ओर लौट गए। एक केंद्र का नेता अनिल रॉय को बनाया गया था।
इतनी सावधानियाँ रखने पर भी अंग्रेज अधिकारियों को यह पता चल ही गया कि नौसैनिक और प्रशिक्षणार्थी विद्रोह करने की तैयारी कर रहे हैं। उन अधिकारियों ने भी अपने ढंग से ऐसी तैयारियाँ प्रारंभ कर दीं, जिससे विद्रोह न भड़क सके।
रात का समय था। विद्रोही नेता अनिल रॉय छात्रावास के अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा हुआ था। उसके पाँच साथी और उस कमरे में थे। वे थे-‘ट्रावनकोर’ जहाज के कुरियन एवं नैयर, ‘पंजाब’ जहाज के बेदी एवं जगदीश और ‘महाराष्ट्र’ जहाज का पवार। आधी रात बीत जाने पर भी मानसिक तनाव के कारण किसी को नींद नहीं आ रही थी। वे आपस में बातचीत कर रहे थे; क्योंकि नियमानुसार ग्यारह बजे रात के पश्चात् बत्ती बुझा देनी पड़ती थी और बातचीत करने की मनाही थी। अपने कमरे का दरवाजा खुला छोड़ना पड़ता था, जिससे छात्रावास अधीक्षक किसी भी समय कमरे में प्रवेश करके सोते हुए उन लोगों की गिनती कर सके।
जाड़े की रात थी। पास के समुद्र में जोर-शोर के साथ गर्जन-तर्जन नहीं हो रहा था। उसके स्थान पर लहरों के उठने-गिरने की मामूली सरसराहट सुनाई दे रही थी। कुरियन की आँखें दरवाजे की तरफ थीं। उसने देखा कि दरवाजे की तरफ से कोई आ रहा है। फुसफुसाहट के स्वर में उसने पास के साथी से कहा-
‘‘रॉय ! कोई आ रहा है।’’
यह फुसफुसाहट समाप्त ही हुई थी कि एक मानवीय आकृति ने कमरे के अंदर प्रवेश किया। रॉय ने डरते हुए आवाज लगाई-
‘‘कौन है ?’’
‘‘क्या हम लोग चोर हैं, जो आधी रात के समय आप हमारी गिनती करने आए हैं ?’’
बेदी को यह सहन नहीं हुआ। उसने हीवार्ड को एक ऐसी हिंदुस्तानी गाली दे दी, जो वह समझ न सके। सभी साथी खिलखिलाकर हँस पड़े। ले. हीवार्ड गिनती करके वापस चला गया।
20 फरवरी, 1946 की सुबह हो गई। उस दिन जो विचित्रता दिखाई दी, वह यह थी कि प्रशिक्षणार्थी को जगाने के लिए जो तुरही बजाई जाती थी, वह नहीं बजाई गई। किसी भी कार्य-दिवस पर पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। तुरही की आवाज केवल छु्टटी के दिन ही नदारद रहती थी। उस दिन तुरही के न बजने पर भी सभी लोग नित्य नियमानुसार उठे और प्रात: कालीन कार्यों से निबटकर नाश्ता करने जा पहुँचे। जलपान कक्ष में पृथक्-पृथक् मेजों के पास समूह बनाकर लोग बैठ गए। वातावरण इतना बोझिल और तनावपूर्ण था कि सभी लोग आपस में केवल दबी जबान से बातें कर रहे थे। कोई किसी से हँसी-मजाक नहीं कर रहा था और पारस्परिक फिरकेबाजी तथा छेड़छाड़ भी नहीं हो रही थी।
जब सब लोग नाश्ता कर चुके तो सीटी बजने की तीखी आवाज उनके कानों में पड़ी। पहले ऐसा हुआ करता था कि सीटी बजते ही कुछ अफसर जलपान कक्ष में पहुँचकर ‘हरी-अप’ कहकर प्रशिक्षणार्थियों को खदेड़ने लगते थे, पर उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सभी लोग स्वयं ही परे़ड मैदान में पहुँच गए और परेड के लिए पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। उन्हें यह भी मालूम नहीं हो सका कि सीटी किसने बजाई थी। वहाँ एक भी अफसर नहीं था। ऐसा लग रहा था जैसे उस दिन अघोषित अवकाश हो।
थोड़ी देर पश्चात् पंक्तिबद्ध खड़े हुए लोगों के सामने ऑफीसर कमांडिंग ले.ए.के. चटर्जी पहुँचे और उन्होंने तो शासकीय तौर पर बंबई के नौसैनिक विद्रोह की सबको सूचना दी और फिर धमकी-भरे स्वर में कहा-
‘‘मैं समझता हूँ कि आप लोग बंबई के नौसैनिक विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने की हिमाकत नहीं करेंगे और कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगे, जिससे विद्रोह की बू आए। यदि आपने यह गलती की तो यह याद रखिए कि प्रशासन आपको कठोर-से-कठोर दंड देने में तनिक भी संकोच नहीं करेगा।’’
यह चेतावनी देने के साथ-ही-साथ ले.ए.के. चटर्जी ने नैवल कोड का वह अंश भी पढ़कर सुना दिया, जो इसी प्रकार की चेतावनी से भरा हुआ था। इसके पश्चात् ले. चटर्जी ने सभी को अपने-अपने काम पर जाने का आदेश दिया।
अपना-अपना कार्य संपन्न करने के पश्चात् सब लोग अपने-अपने कमरों में चले गए।
संघ का एक नेता अनिल रॉय अपने कमरे में गुमसुम बैठा था। उसके अन्य साथी उस समय तक कमरे में नहीं पहुँचे थे। इसी बीच दबे पैरों ‘हिमालय’ जहाज का एक प्रतिनिधि उसके कमरे में पहुँचा। उसे लेकर अनिल एक कोने में जा पहुँचा और फुसफुसाकर पूछा-
‘‘कहो, क्या बात है ?’’
आगंतुक अनिल रॉय के कान के पास अपना मुँह लगाकर फुसफुसाया-
‘‘हिंदुस्तान जहाज के प्रशिक्षणार्थी अपनी हड़ताल 21 फरवरी के स्थान पर 20 फरवरी से ही प्रारंभ करना चाहते हैं; क्योंकि 21 फरवरी को वह जहाज और कहीं ले जाया जा रहा है।’’
अनिल के लिए यह खबर चिंताजनक थी। उसने सोचा कि यह ठीक नहीं रहेगा कि कुछ लोग 20 फरवरी को हड़ताल करें और कुछ 21 फरवरी को। उसने पूछा-
‘‘यह कैसे मालूम हुआ कि ‘हिदुंस्तान’ जहाज के साथियों को 21 फरवरी को कराची से हटाया जा रहा है ?’’
आगंतुक ने उत्तर दिया-
‘‘ उन लोगों का जहाज 21 फरवरी को सुबह कराची छोड़ देगा, इस प्रकार के उन्हें आदेश मिल चुके हैं। गंतव्य नहीं बताया गया है।’’
मौन रहकर थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् अनिल ने कहा-
‘‘ऐसी स्थिति में तो यह ठीक है कि ‘हिंदुस्तान’ जहाज के साथी अपनी हड़ताल 20 फरवरी से प्रारंभ कर दें। इससे कम-से-कम यह तो होगा कि हड़ताल करने के कारण जहाज का प्रस्थान स्थगित हो जाएगा और आगे के दिनों में वे हड़ताल में हमारे साथ रह सकेंगे। फिर भी मेरा परामर्श यही है कि अपनी स्थिति के सही निर्णायक वे स्वयं ही हैं। हाँ, इतना अवश्य कीजिए कि आज भोजन के समय आप स्वयं और ‘हिमालय’ के प्रतिनिधिगण यहाँ आ जाएँ, जिससे हम लोग अंतिम निर्णय ले सकें।
जिन लोगों को बुलाया गया था, वे सब भोजन के समय वहाँ पहुँच गए। उन्होंने अनिल रॉय और अन्य साथियों को बताया कि ‘हिंदुस्तान’ जहाज के साथियों ने तो विद्रोह प्रारंभ भी कर दिया है और वह भी बड़े सख्त कदम के साथ। उन लोगों ने अपने जहाज के सभी हिंदुस्तानी और अंग्रेज अफसरों को जहाज से मार भगाया है और अब जहाज के स्वामी वे सब लोग स्वयं ही हैं।
यह समाचार सुनकर सभी के वक्ष फूल गए। अनिल रॉय ने कहा-
‘‘तो ‘हिंदुस्तान’ के साथी सब लोगों से बाजी मार ले गए! यह भी अच्छा ही हुआ कि जहाज उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया। बिना जहाज के विद्रोह कैसा !’’
जैसाकि पूर्व में निश्चित किया गया था, 20 फरवरी की शाम को सभी लोग घूमने-फिरने के बहाने सागर तट पर फिर मिलें और अगले दिन अर्थात् 21 फरवरी को की जानेवाली हड़ताल के कार्यक्रम को अंतिम रूप प्रदान कर दिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि 21 फरवरी को बंबई में मारे गए नौसैनिक साथियों के शोक प्रदर्शन के लिए भूख हड़ताल भी रखी जाए। विसर्जित होने के पहले सभी लोग एक-दूसरे से गले लगकर मिले, ‘जयहिंद’ के अभिवादन के साथ बिदा हो गए।
रात को सब लोग अपने कमरों में पहुँच गए। धीरे-धीरे अंधकार की चादर ने उन सबको लपेट लिया। शीतकालीन सागर की लहरें, जो उनके लिए लोरियों का काम करके उन्हें गहरी नींद में सुला देती थीं, इस समय उनकी नींद में व्यवधान बन रही थीं। नींद उनसे कोसों दूर भाग गई थी और वे लोग चिंता एवं चिंतन में डूबे हुए थे, कोई किसी से बोल नहीं रहा था। सभी सोचे जा रहे थे। वे सोच रहे थे, ‘सुबह होते ही हमें विद्रोह का झंडा बुलंद करना है। हमारी व्यवस्थाओं और तैयारियों में कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी है। यदि हमें जल पट्टी पार नहीं करने दी गई और केमारी जेट्टी नहीं पहुँचने दिया गया तो क्या होगा ? यदि ब्रिटिश सेना ने हम लोगों को घेरकर गोलियाँ चला दीं तो क्या होगा ? वे सोच रहे थे, ‘यदि हम लोग गोलियों के शिकार होकर मौत की गोद में सो गए तो हमारे माता-पिता पर क्या बीतेगी? क्या हम लोगों की ओर से उनके सुनहले सपनों पर कालिख नहीं पुत जाएगी ? क्या उनके बुढ़ापे की लाठी नहीं टूट जाएगी ?’ वे सोच रहे थे ‘यह तो संसार है-यह नश्वर संसार है। यहाँ से कोई कभी और कोई कभी जाता ही है।’ वे सोच रहे थे, ‘इस समय तो देश और धरती के प्रति हमारा कर्त्तव्य है-इस समय तो उन साथियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करना हमारा प्रथम कर्तव्य है, जो विद्रोह करते हुए बंबई में गोलियों के शिकार हुए हैं और कुछ लोग भूख हड़ताल करते हुए ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष कर रहे हैं।’ वे लोग इन्हीं विचारों में डूबे हुए सुबह होने का इंतजार कर रहे थे।
21 फरवरी की सुबह हो गई। रात-भर जागते रहने और चिंतन-सागर में डूबते-उतराते रहने पर भी वे सभी ठीक समय पर बड़े उत्साह के साथ अपने बिस्तरों से उछल-उछलकर उठे और प्रात:कालीन कार्यों से निवृत्त होकर उछलते-कूदते तथा नारे लगाते हुए परेड मैदान की ओर बढ़ चले। कुछ लोग आवास गृहों का चक्कर इस उद्देश्य से लगाने लगे कि कहीं कोई अंदर तो नहीं रह गया है। वे लोग नारे लगा रहे थे-
‘इनकलाब जिंदाबाद !’’
‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो !’’
‘‘नाविक एकता जिंदाबाद !’’
बंबई में नौसैनिक विद्रोह 18 फरवरी, 1946 को प्रारंभ हो चुका था; लेकिन कराची के नौसैनिकों को उस विद्रोह का समाचार 19 फरवरी को मिला, जब प्रात:कालीन अखबार उनके हाथों में पहुँचा। बंबई के विद्रोह के समाचार पढ़कर वे लोग सन्न रह गए। उनके दैनिक जीवन की मस्ती व खुशियाँ तिरोहित हो गईं और तनाव, उत्तेजना एवं अनिश्चय के वातावरण ने कराची के सभी नौसैनिकों को घेर लिया।
उस समय कराची में शाही भारतीय नौसेना के पाँच जहाज थे। उनके नाम थे-
1. एच.एम.आई.एस. मौंज,
2. एच.एम.आई.एस. हिमालय,
3. एच.एम.आई.एस. बहादुर,
4. एच.एम.आई.एस. दिलावर,
5.एच.एम.आई.एस. चमक।
इनमें से ‘मौंज’ जहाज स्थानीय सुरक्षा के लिए था, ‘हिमालय’ नाम का जहाज तोप संचालक था, ‘बहादुर’ और ‘दिलावर’ नाम के जहाज किशोरावस्था के बालकों के प्रशिक्षण के लिए थे और ‘चमक’ नाम का जहाज राडार व्यवस्था के प्रशिक्षण के लिए था।
‘बहादुर’ नाम के जहाज पर जो प्रशिक्षणार्थी थे, उनमें से किसी की भी उम्र पंद्रह वर्ष से अधिक नहीं थी और ‘दिलावर’ नाम के जहाज के प्रशिक्षणार्थी तो आठ-आठ दस-दस वर्ष के बच्चे थे, जिन्हें उनके माता-पिता ने इसलिए ठेल दिया था कि वे कमाकर उनके लिए कुछ भेज सकें या कम-से-कम उनके लिए बोझ न बनें। माता-पिता के लिए इस स्थिति का निर्माण इसलिए हो गया था कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् ब्रिटिश शासन ने अपनी खोखली आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कई प्रकार के ‘कर’ लगा दिए थे और महँगाई बहुत अधिक बढ़ गई थी। निर्धन और निम्न-मध्यवर्गीय लोगों के लिए जीना मुश्किल हो गया था और उन्हीं लोगों ने अपने बच्चों को जहाजी प्रशिक्षण के लिए भेज दिया था।
परिस्थितियों की चपेट के कारण ब्रिटिश हुकूमत के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह अपनी नौसैनिक शक्ति बढ़ाए और जहाजों की संख्या में काफी वृद्धि करे। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान जैसे छोटे देश ने अंग्रेजों के कई जहाजों को समुद्र में समाधि दे दी थी और उनकी शक्ति के खोखलेपन को उजागर कर दिया था। अपने इस अनुभव से सबक लेकर ब्रिटिश हुकूमत ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अपनी जलशक्ति की वृद्धि के लिए जहाजों की संख्या में काफी वृद्धि कर दी थी और इसी कारण काफी मात्रा में उन्हें नई भरती करनी पड़ी थी। गरीब और अभावग्रस्त वर्ग के लोगों ने अपने छोटे-छोटे बच्चों को बाल नौसेना में भरती करा दिया था।
कराची के जलक्षेत्र की भौगोलिक स्थिति भी जान लेना आवश्यक है।
कराची के जलशक्ति संस्थान एक छोटे से द्वीप पर स्थित थे, जिसे ‘मनोरा’ नाम से जाना जाता था। अरब सागर की एक जल पट्टी ने मनोरा द्वीप को कराची शहर से अलग कर दिया था। यह जल पट्टी लगभग दो किलोमीटर चौड़ी थी। कराची नगर के सुदूर दक्षिणी अंचल में कराची का बंदरगाह था, जिसे ‘केमारी जेट्टी’ के नाम से जाना जाता था।
जब बंबई में नौसैनिक विद्रोह भड़का तो बंबई के नौसेना अधिकारियों के तो हाथ-पैर फूल गए; क्योंकि वहाँ सभी नौसेना केंद्र और सैनिक बैरकें पास-पास थीं और उनमें पारस्परिक संपर्क बहुत शीघ्र स्थापित हो गया। लेकिन कराची के नौसैनिक अधिकारियों में विद्रोह के समाचार सुनकर भी कोई घबराहट नहीं हुई, क्योंकि वे जानते थे कि भौगोलिक पृथकता के कारण नौसेना का संपर्क शहर के लोगों से नही हो पाएगा और अलग-थलग पड़ जाने के कारण वहाँ के नौसैनिक विद्रोह नहीं कर सकेंगे।
19 फरवरी को रोजाना की भांति कक्षाएँ लगीं। नौसैनिक और प्रशिक्षणार्थी बंबई विद्रोह के समाचार पढ़ चुके थे; लेकिन उन्होंने किसी अशांति और उत्तेजना का प्रदर्शन नहीं किया। यह इसलिए आवश्यक था, जिससे उनके अधिकारियों को उनके प्रति कोई संदेह उत्पन्न न हो। जब दोपहर के भोजन के लिए कक्षाएँ छूटीं तो लोग इधर-उधर बिखर गए। प्रशिक्षणार्थियों में जो नेता किस्म के लोग थे, वे प्रशिक्षाणार्थियों से गपशप करते हुए विद्रोह के विषय में उनके विचार जानने लगे। उन लोगों का अपना एक संघ था, जिसका नाम ‘सेलर्स एसोसिएशन’ (नाविक संघ) था। वैसे इस संघ की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वहाँ कई तरह के क्लब भी थे; लेकिन यह संघ विशेष उद्देश्य से बनाया गया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से अंग्रेजों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के अफसरों को गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें भी भारत लाया गया था। दिल्ली के लाल किले में उनपर मुकदमा चलाया जा रहा था। जिन लोगों पर फौजी अदालत में मुकदमा चलाया जा रहा था, उनमें मेजर जनरल शहनवाज खाँ, कर्नल गुरुबख्शसिंह ढिल्लन और कर्नल प्रेमकुमार सहगल प्रमुख थे। ब्रिटिश सरकार का पूरा प्रयत्न था कि उन लोगों को फाँसी पर लटकाकर अन्य लोगों के दिलों में दहशत उत्पन्न की जाए, जिससे वे कभी बगावत की बात न सोचें। भारत-भर में इस मुकदमें के कारण सनसनी फैल गई थी और लोग अपने राष्ट्रीय वीरों को बचाने के लिए कृतसंकल्प थे। एक बचाव समिति बनाई गयी थी। देश के कोने-कोने से चंदा एकत्र होकर बचाव समिति के पास पहुँच रहा था। नागरिक लोग तो चंदा देने के लिए स्वतंत्र थे, लेकिन शासकीय कर्मचारी खुले रूप से चंदा नहीं दे सकते थे। ब्रिटिश सेनाएँ तो सम्राट् के प्रति वफादारी की प्रतिबद्धता के कारण आई.एन.ए.के लोगों को बचाने के लिए चंदा देने की बात सोच भी नहीं सकती थीं। इतना होने पर भी तीनों प्रकार की सेना के लोग आई.एन.ए. के वीरों को बचाने के लिए भरपूर चंदा दे रहे थे। कराची में जो सेलर्स एसोसिएशन बनाया गया था, वह इसी उद्देश्य से बनाया गया था। उन्होंने जाहिर कर रखा था कि सार्वजनिक उत्सवों और आवश्यकता की घड़ी में साथियों की आर्थिक सहायता के लिए कोष स्थापित किया गया है। अपने उस कोष का उपयोग वे लोग आजाद हिंद फौज के अफसरों पर चल रहे मुकदमें में उनकी सहायता के लिए कर रहे थे।
जब हड़ताल की सनसनी फैली तो सभी लोगों से संपर्क साधने के बजाए इस नाविक संघ के प्रतिनिधियों से संपर्क साध लिया गया। प्रशिक्षणार्थियों के लिए जो भोजन का अवकाश मिला था, उसमें घूम-घूमकर यह निश्चय किया गया कि पूरी छुट्टी हो जाने के उपरांत घूमते-फिरने और मनोरंजन करने के बहाने सभी जहाजों के लोग सागर तट पर पहुँचें, जिससे हड़ताल करने के संबंध में कुछ निर्णय लिया जा सके।
संध्या होते ही सभी केंद्रों के लोग घूमने-फिरने के बहाने समुद्र तट पर पहुँच गए। वे लोग इधर-उधर समूह बनाकर बैठ गए और गपशप करने लगे। बंबई में नौसैनिक विद्रोह भड़क जाने के कारण इन लोगों पर तनाव था और कोई भी आपस में हँसी-मजाक नहीं कर रहा था; ठहाके नहीं उठ रहे थे। सभी समूह धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। इस अवसर का लाभ उठाकर संघ के प्रतिनिधि वहाँ से खिसककर, पहले निश्चित कर लिये गए एक स्थान पर बैठकर, मीटिंग करने लगे। प्रतिनिधियों की इस सभा ने निर्णय लिये-
1. 20 फरवरी के पूरे दिन पारस्परिक विचार- विमर्श और व्यवस्थाएँ करके 21 फरवरी, 1946 से कराची के नौसैनिक विद्रोह प्रारंभ कर दें।
2. सभी लोग 21 फरवरी को प्रात: दस बजे कराची की केमारी जेट्टी में एकत्र हों।
3. ‘बहादुर’ और ‘चमक’ जहाजों के प्रशिक्षणार्थी पृथक-पृथक् न जाकर सम्मिलित रूप से केमारी जेट्टी पहुँचें, जिससे ‘चमक’ जहाज के किशोर प्रशिक्षणार्थियों को अपने वरिष्ठ साथियों का संरक्षण मिल सके।
4. बंबई के विद्रोही नौसैनिक साथियों की हड़ताल का समर्थन करने के लिए कराची के बाजारों में एक जुलूस निकाला जाए।
5. कराची के केमारी जेट्टी के गोदी मजदूरों को भी जुलूस में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया जाए।
6. जुलूस में साम्राज्य विरोधी और हिंदू-मुसलिम एकता के वे सभी नारे लगाए जाएँ, जो बंबई में लगाए गए हैं।
7. प्रशिक्षण के लिए लगनेवाली कक्षाओं और जहाजों के अन्य कार्यों का पूर्णरूप से बहिष्कार किया जाए।
अगला कदम उठाने की दिशा में निर्णय लेने के लिए विभिन्न केंद्रों की एक दस सदस्यीय समिति का निर्माण कर लिया गया। ‘हिमालय’ जहाज के साथियों को यह दायित्व दिया गया कि वे केमारी जेट्टी स्थित ‘हिंदुस्तान’ और ‘ट्रावनकोर’ जहाजों के साथियों को इन निर्णयों की सूचना दे दें। यह भी निर्णय लिया गया कि कोई ऐसा आचरण न किया जाए, जिससे अधिकारियों को कोई संदेह हो। 20 फरवरी की शाम को उसी स्थल पर फिर मिलने का निश्चय किया गया। घूम-फिरकर सभी लोग अपने-अपने आवास गृहों की ओर लौट गए। एक केंद्र का नेता अनिल रॉय को बनाया गया था।
इतनी सावधानियाँ रखने पर भी अंग्रेज अधिकारियों को यह पता चल ही गया कि नौसैनिक और प्रशिक्षणार्थी विद्रोह करने की तैयारी कर रहे हैं। उन अधिकारियों ने भी अपने ढंग से ऐसी तैयारियाँ प्रारंभ कर दीं, जिससे विद्रोह न भड़क सके।
रात का समय था। विद्रोही नेता अनिल रॉय छात्रावास के अपने कमरे में बिस्तर पर लेटा हुआ था। उसके पाँच साथी और उस कमरे में थे। वे थे-‘ट्रावनकोर’ जहाज के कुरियन एवं नैयर, ‘पंजाब’ जहाज के बेदी एवं जगदीश और ‘महाराष्ट्र’ जहाज का पवार। आधी रात बीत जाने पर भी मानसिक तनाव के कारण किसी को नींद नहीं आ रही थी। वे आपस में बातचीत कर रहे थे; क्योंकि नियमानुसार ग्यारह बजे रात के पश्चात् बत्ती बुझा देनी पड़ती थी और बातचीत करने की मनाही थी। अपने कमरे का दरवाजा खुला छोड़ना पड़ता था, जिससे छात्रावास अधीक्षक किसी भी समय कमरे में प्रवेश करके सोते हुए उन लोगों की गिनती कर सके।
जाड़े की रात थी। पास के समुद्र में जोर-शोर के साथ गर्जन-तर्जन नहीं हो रहा था। उसके स्थान पर लहरों के उठने-गिरने की मामूली सरसराहट सुनाई दे रही थी। कुरियन की आँखें दरवाजे की तरफ थीं। उसने देखा कि दरवाजे की तरफ से कोई आ रहा है। फुसफुसाहट के स्वर में उसने पास के साथी से कहा-
‘‘रॉय ! कोई आ रहा है।’’
यह फुसफुसाहट समाप्त ही हुई थी कि एक मानवीय आकृति ने कमरे के अंदर प्रवेश किया। रॉय ने डरते हुए आवाज लगाई-
‘‘कौन है ?’’
‘‘क्या हम लोग चोर हैं, जो आधी रात के समय आप हमारी गिनती करने आए हैं ?’’
बेदी को यह सहन नहीं हुआ। उसने हीवार्ड को एक ऐसी हिंदुस्तानी गाली दे दी, जो वह समझ न सके। सभी साथी खिलखिलाकर हँस पड़े। ले. हीवार्ड गिनती करके वापस चला गया।
20 फरवरी, 1946 की सुबह हो गई। उस दिन जो विचित्रता दिखाई दी, वह यह थी कि प्रशिक्षणार्थी को जगाने के लिए जो तुरही बजाई जाती थी, वह नहीं बजाई गई। किसी भी कार्य-दिवस पर पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। तुरही की आवाज केवल छु्टटी के दिन ही नदारद रहती थी। उस दिन तुरही के न बजने पर भी सभी लोग नित्य नियमानुसार उठे और प्रात: कालीन कार्यों से निबटकर नाश्ता करने जा पहुँचे। जलपान कक्ष में पृथक्-पृथक् मेजों के पास समूह बनाकर लोग बैठ गए। वातावरण इतना बोझिल और तनावपूर्ण था कि सभी लोग आपस में केवल दबी जबान से बातें कर रहे थे। कोई किसी से हँसी-मजाक नहीं कर रहा था और पारस्परिक फिरकेबाजी तथा छेड़छाड़ भी नहीं हो रही थी।
जब सब लोग नाश्ता कर चुके तो सीटी बजने की तीखी आवाज उनके कानों में पड़ी। पहले ऐसा हुआ करता था कि सीटी बजते ही कुछ अफसर जलपान कक्ष में पहुँचकर ‘हरी-अप’ कहकर प्रशिक्षणार्थियों को खदेड़ने लगते थे, पर उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सभी लोग स्वयं ही परे़ड मैदान में पहुँच गए और परेड के लिए पंक्तिबद्ध खड़े हो गए। उन्हें यह भी मालूम नहीं हो सका कि सीटी किसने बजाई थी। वहाँ एक भी अफसर नहीं था। ऐसा लग रहा था जैसे उस दिन अघोषित अवकाश हो।
थोड़ी देर पश्चात् पंक्तिबद्ध खड़े हुए लोगों के सामने ऑफीसर कमांडिंग ले.ए.के. चटर्जी पहुँचे और उन्होंने तो शासकीय तौर पर बंबई के नौसैनिक विद्रोह की सबको सूचना दी और फिर धमकी-भरे स्वर में कहा-
‘‘मैं समझता हूँ कि आप लोग बंबई के नौसैनिक विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने की हिमाकत नहीं करेंगे और कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगे, जिससे विद्रोह की बू आए। यदि आपने यह गलती की तो यह याद रखिए कि प्रशासन आपको कठोर-से-कठोर दंड देने में तनिक भी संकोच नहीं करेगा।’’
यह चेतावनी देने के साथ-ही-साथ ले.ए.के. चटर्जी ने नैवल कोड का वह अंश भी पढ़कर सुना दिया, जो इसी प्रकार की चेतावनी से भरा हुआ था। इसके पश्चात् ले. चटर्जी ने सभी को अपने-अपने काम पर जाने का आदेश दिया।
अपना-अपना कार्य संपन्न करने के पश्चात् सब लोग अपने-अपने कमरों में चले गए।
संघ का एक नेता अनिल रॉय अपने कमरे में गुमसुम बैठा था। उसके अन्य साथी उस समय तक कमरे में नहीं पहुँचे थे। इसी बीच दबे पैरों ‘हिमालय’ जहाज का एक प्रतिनिधि उसके कमरे में पहुँचा। उसे लेकर अनिल एक कोने में जा पहुँचा और फुसफुसाकर पूछा-
‘‘कहो, क्या बात है ?’’
आगंतुक अनिल रॉय के कान के पास अपना मुँह लगाकर फुसफुसाया-
‘‘हिंदुस्तान जहाज के प्रशिक्षणार्थी अपनी हड़ताल 21 फरवरी के स्थान पर 20 फरवरी से ही प्रारंभ करना चाहते हैं; क्योंकि 21 फरवरी को वह जहाज और कहीं ले जाया जा रहा है।’’
अनिल के लिए यह खबर चिंताजनक थी। उसने सोचा कि यह ठीक नहीं रहेगा कि कुछ लोग 20 फरवरी को हड़ताल करें और कुछ 21 फरवरी को। उसने पूछा-
‘‘यह कैसे मालूम हुआ कि ‘हिदुंस्तान’ जहाज के साथियों को 21 फरवरी को कराची से हटाया जा रहा है ?’’
आगंतुक ने उत्तर दिया-
‘‘ उन लोगों का जहाज 21 फरवरी को सुबह कराची छोड़ देगा, इस प्रकार के उन्हें आदेश मिल चुके हैं। गंतव्य नहीं बताया गया है।’’
मौन रहकर थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् अनिल ने कहा-
‘‘ऐसी स्थिति में तो यह ठीक है कि ‘हिंदुस्तान’ जहाज के साथी अपनी हड़ताल 20 फरवरी से प्रारंभ कर दें। इससे कम-से-कम यह तो होगा कि हड़ताल करने के कारण जहाज का प्रस्थान स्थगित हो जाएगा और आगे के दिनों में वे हड़ताल में हमारे साथ रह सकेंगे। फिर भी मेरा परामर्श यही है कि अपनी स्थिति के सही निर्णायक वे स्वयं ही हैं। हाँ, इतना अवश्य कीजिए कि आज भोजन के समय आप स्वयं और ‘हिमालय’ के प्रतिनिधिगण यहाँ आ जाएँ, जिससे हम लोग अंतिम निर्णय ले सकें।
जिन लोगों को बुलाया गया था, वे सब भोजन के समय वहाँ पहुँच गए। उन्होंने अनिल रॉय और अन्य साथियों को बताया कि ‘हिंदुस्तान’ जहाज के साथियों ने तो विद्रोह प्रारंभ भी कर दिया है और वह भी बड़े सख्त कदम के साथ। उन लोगों ने अपने जहाज के सभी हिंदुस्तानी और अंग्रेज अफसरों को जहाज से मार भगाया है और अब जहाज के स्वामी वे सब लोग स्वयं ही हैं।
यह समाचार सुनकर सभी के वक्ष फूल गए। अनिल रॉय ने कहा-
‘‘तो ‘हिंदुस्तान’ के साथी सब लोगों से बाजी मार ले गए! यह भी अच्छा ही हुआ कि जहाज उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया। बिना जहाज के विद्रोह कैसा !’’
जैसाकि पूर्व में निश्चित किया गया था, 20 फरवरी की शाम को सभी लोग घूमने-फिरने के बहाने सागर तट पर फिर मिलें और अगले दिन अर्थात् 21 फरवरी को की जानेवाली हड़ताल के कार्यक्रम को अंतिम रूप प्रदान कर दिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि 21 फरवरी को बंबई में मारे गए नौसैनिक साथियों के शोक प्रदर्शन के लिए भूख हड़ताल भी रखी जाए। विसर्जित होने के पहले सभी लोग एक-दूसरे से गले लगकर मिले, ‘जयहिंद’ के अभिवादन के साथ बिदा हो गए।
रात को सब लोग अपने कमरों में पहुँच गए। धीरे-धीरे अंधकार की चादर ने उन सबको लपेट लिया। शीतकालीन सागर की लहरें, जो उनके लिए लोरियों का काम करके उन्हें गहरी नींद में सुला देती थीं, इस समय उनकी नींद में व्यवधान बन रही थीं। नींद उनसे कोसों दूर भाग गई थी और वे लोग चिंता एवं चिंतन में डूबे हुए थे, कोई किसी से बोल नहीं रहा था। सभी सोचे जा रहे थे। वे सोच रहे थे, ‘सुबह होते ही हमें विद्रोह का झंडा बुलंद करना है। हमारी व्यवस्थाओं और तैयारियों में कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी है। यदि हमें जल पट्टी पार नहीं करने दी गई और केमारी जेट्टी नहीं पहुँचने दिया गया तो क्या होगा ? यदि ब्रिटिश सेना ने हम लोगों को घेरकर गोलियाँ चला दीं तो क्या होगा ? वे सोच रहे थे, ‘यदि हम लोग गोलियों के शिकार होकर मौत की गोद में सो गए तो हमारे माता-पिता पर क्या बीतेगी? क्या हम लोगों की ओर से उनके सुनहले सपनों पर कालिख नहीं पुत जाएगी ? क्या उनके बुढ़ापे की लाठी नहीं टूट जाएगी ?’ वे सोच रहे थे ‘यह तो संसार है-यह नश्वर संसार है। यहाँ से कोई कभी और कोई कभी जाता ही है।’ वे सोच रहे थे, ‘इस समय तो देश और धरती के प्रति हमारा कर्त्तव्य है-इस समय तो उन साथियों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करना हमारा प्रथम कर्तव्य है, जो विद्रोह करते हुए बंबई में गोलियों के शिकार हुए हैं और कुछ लोग भूख हड़ताल करते हुए ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष कर रहे हैं।’ वे लोग इन्हीं विचारों में डूबे हुए सुबह होने का इंतजार कर रहे थे।
21 फरवरी की सुबह हो गई। रात-भर जागते रहने और चिंतन-सागर में डूबते-उतराते रहने पर भी वे सभी ठीक समय पर बड़े उत्साह के साथ अपने बिस्तरों से उछल-उछलकर उठे और प्रात:कालीन कार्यों से निवृत्त होकर उछलते-कूदते तथा नारे लगाते हुए परेड मैदान की ओर बढ़ चले। कुछ लोग आवास गृहों का चक्कर इस उद्देश्य से लगाने लगे कि कहीं कोई अंदर तो नहीं रह गया है। वे लोग नारे लगा रहे थे-
‘इनकलाब जिंदाबाद !’’
‘‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो !’’
‘‘नाविक एकता जिंदाबाद !’’
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